मांडल। कस्बे में शनिवार को 411 वां नाहर नृत्य धूमधाम से मनाया गया। ग्रामवासियों ने रंग तेरस पर अपने घरो मे विशेष पकवान बनाए। कस्बे वासी सुबह से ही रंग गुलाल लेकर एक दुसरे को रंग लगाकर अपनी खुशी का इजहार करते नजर आए। दोपहर में सदर बाजार टंडन चौराहे से खाटली पर बैठाकर बादशाह बेगम की सवारी को रंग गुलाल उडाते हुए युवा अपने अलग ही अंदाज मे मदमस्त होकर आनन्द लेते हुए निकले और तहसील कार्यालय पहुंचे जहां होली खेली गई। रात्रि में कस्बे के कलाकारों ने दशहरा चौक व बड़ा मंदिर चौक में रुई लपेटे हुए नाहर का स्वांग करते हुए नृत्य किया। आगामी चुनाव को लेकर लागू आचार संहित को देखते हुए सुरक्षा व्यवस्था के लिए प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों सहित पुलिस जाब्ता तैनात रहा।
नाहर नृत्य का इतिहास सन् 1614 ईस्वी में मुगल बादशाह जहांगीर शहजादा खुर्रम मुगल सम्राट शाहजहा महाराणा अमर सिंह से संधी करने मेवाड़ की तरफ आए तो तालाब किनारे जल महल बनाकर कुछ अर्से तक अपनी बेगमों के साथ पड़ाव डाला। शहजादे खुर्रम के लोकानुरंजन के लिए यहा के श्रेष्ठ कलाकारों ने ऐसा स्वांग प्रस्तुत किया। जो भरपूर मनोरजंन ही नही दे पाया अपितु यादगार बन गया। यह स्वांग शेरो का था जिससे यहा के वीरों की शक्ति और बुद्वीमता का परिचय मिल सके जिसे नाहर नृत्य भी कहा जाता है। इस नृत्य को देखकर बादशाह बहुत खुश हुए व इसको जारी रखने के लिए पाराशर वंशजो का शाही पत्र भेंट किया। तब से नाहर नृत्य वार्षिक उत्सव के रूप मे प्रति वर्ष मनाया जाने लगा।
नाहर नृत्य में अलग-अलग समाज के चार पुरूषो को अपने शरीर पर दुधिया रूई चिपका कर नाहर (शेर) का रूप धारण कर सिर पर दो सींग भी लगाए जाते है। इनके साथ ही लाल लंगोट तथा सिर पर टोपा पहने एक भोपा होता है। मोरपंख की छुवन से यह सबको सावचेत करता है। कर्ण प्रिय वाध यन्त्र, जंगी ढोल नगाड़ो के डंको की तेज ध्वनी व बांक्या ढोलक की मधुर झंकार पर धीरे-धीरे नाचते आगे बढते जाते है। लगभग एक घण्टे तक शेरो की दहाड़ते एक दूसरे पर वार करते मनमोहक प्रस्तुती देते है।